"रिश्ते कितने अजीब होतें हैं !"
सच में रिश्ते अजीब से नहीं होते ...? इतने अजीब कि कभी -कभी लगता है इन्हें रिश्ते ही क्यों कहते हैं ? शायद रिश्ते निज स्वार्थ की पूर्ति का माध्यम होते हैं ! "मन " भी कितना " अपना " सा होता है , जब तक इसे ख़ुशी मिलती है इसे हर चीज अच्छीही लगती है ! परन्तु जब "मन " को कोई चीज अच्छी न लगे या उसे किसी रिश्ते से, किसी बात से, या किसी अन्य माध्यम से चोट सी लगे तो ...."मन " महसूस करता है कि वह इस शरीर में ही नहीं है ..! जाने कहाँ -कहाँ खो सा जाता है न ..! इसलिए कहतें हैं न - " मन के हारे हार है मन के जीते जीत " ! वैसे भी किसी ने सच ही कहा है कि -" दिमाग से कम करने से स्वार्थी बनने से न केवल जीवन सुखी होता है बल्कि सभी 'पूछते ' भी हैं ...! ख्याल भी करते हैं ...!! " और जो मन से, दिल से जीवन जीता है वह सदा 'अकेला ' ही रहता है ..! उसे कोई "कीमत " नहीं देता , महत्त्व नहीं देता और जीवन की खुशियाँ केवल 'मन ' को छू कर चली जाती हैं ! उसके साथ नहीं रहती हैं न ..! कितनी अजीब बात है न ..कि एक ही शरीर में दोनों के दो स्वरूपों का होना ..? एक से जीवन खुशहाल होता है तो दूसरे से अकेला ? ऊपर से लोग कहतें हैं -" रिश्ते मन से बनाये जातें हैं न कि दिमाग से ?" समझ नहीं आता जीवन किसके सहारे जियें - 'मन ' से यस 'दिमाग' से ? रिश्तों से जीवन सुखी हो क्या यह जरूरी होता है ? मैंने अपने अब तक के जीवन में यही महसूस किया कि -" दिमाग को सयम में रख कर मन से दिल से कम करें !" मैंने इसका पालन किया , शायद इसी कारण मैं सबके साथ रह कर भी अकेला ही रहा हूँ ...सबसे अलग ..! मेरे मन की एक ख्वाहिश --' मेरा कोई ध्यान रखे , मुझसे प्यारी सी बातें करे , केवल मुझे प्यार करे , " कब पूरी होगी ? पता नहीं , जीते जी या फिर ....? चाहे पूरी हो या न हो मैं अपना जीवन, अपने रिश्तों को 'मन ' से जियूँगा , न की 'दिमाग' से ! हाँ अपने कार्यों को दिमाग से करूंगा ..! पर उसमे भी 'मन ' शामिल रहेगा ! क्योंकि दिमाग सब सही माने और मन नहीं ..तो कम कैसा ? सच है न ...तो अब अपने शब्द यहीं रोकता हूँ ..फिर मिलूँगा ........! "-मनु भारतीय"
No comments:
Post a Comment