" तपती ग्रीष्म ऋतु में ,
कोमल रूप तुम्हारा -
शीतल छाया बन जाता है !
महकती बसंत ऋतु में ,
गुणों की महक सा,
रूप तुम्हारा -
जीवन महका देता है !
बरसती बरखा ऋतु में ,
भीगा-भीगा सा रूप तुम्हारा -
क्षणों को यादें बना देता है !
सिरहती शीत ऋतु में ,
रक्तिम सा रूप तुम्हारा -
जीने की लालसा जगा देता है !
व्यर्थ क्यों उलझूं ऋतुओं में ,
तुम्हारे रूप सौन्दर्य के सानिध्य में-
सम्पूर्ण सृष्टि का सौन्दर्य -
मेरे जीवन की सार्थकता बन जाता है !"
"-- मनु "
अच्छी कविता ...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
ReplyDeleteव्यर्थ क्यों उलझूं ऋतुओं में ,
ReplyDeleteतुम्हारे रूप सौन्दर्य के सानिध्य में-
सम्पूर्ण सृष्टि का सौन्दर्य -
मेरे जीवन की सार्थकता बन जाता है !"
बहुत सुन्दर....