Tuesday, November 16, 2010

" रूप तुम्हारा "

" तपती ग्रीष्म ऋतु में ,
कोमल रूप तुम्हारा -
शीतल छाया बन जाता है !

महकती बसंत ऋतु में ,
गुणों की महक सा,
रूप तुम्हारा -
जीवन महका देता है !


बरसती
बरखा ऋतु में ,
भीगा-भीगा सा रूप तुम्हारा -
क्षणों को यादें बना देता है !

सिरहती शीत ऋतु में ,
रक्तिम सा रूप तुम्हारा -
जीने की लालसा जगा देता है !

व्यर्थ क्यों उलझूं ऋतुओं में ,
तुम्हारे रूप सौन्दर्य के सानिध्य में-
सम्पूर्ण सृष्टि का सौन्दर्य -
मेरे जीवन की सार्थकता बन जाता है !"

"-- मनु "

2 comments:

  1. अच्छी कविता ...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.

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  2. व्यर्थ क्यों उलझूं ऋतुओं में ,
    तुम्हारे रूप सौन्दर्य के सानिध्य में-
    सम्पूर्ण सृष्टि का सौन्दर्य -
    मेरे जीवन की सार्थकता बन जाता है !"
    बहुत सुन्दर....

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