Monday, December 6, 2010

" दुनियां में धर्म -कर्म के सिवा अपना कुछ भी नहीं !"

" सच ही तो है ...इन दोनों के सिवा अपना है ही क्या ? और यदि हम इन दिनों में सही ताल -मेल बैठा सकें तो हमारा यह जीवन न केवल खूबसूरत हो जायेगा ! अपितु हम सदा सामान्य भी रह पाएंगे साथ ही हमारे सभी काम सफल भी होंगें ! कर्म का मतलब हमने सुना है कि जो काम हम करतें है, उसे अच्छे से करें , मेहनत से करें , मन लगा कर करें ...! है न ..! पर इसमें हम एक चीज पर ध्यान देना भूल जातें है ? और वो है अपने काम में कुछ नया करना ..! कुछ जोखिम उठाने की हिम्मत भी करना ..! अब होता यह है कि यदि हम अपने काम में इन चीजों को नहीं शामिल करते तो हम अपने कर्म क्षेत्र में अपनी पहचान नहीं बना पाते ? केवल नियमित प्रगति ही कर पातें है , जो बाद में कहीं हमारे मन में टीस पैदा करती है कि काश उस समय कुछ तो मन में था, अगर उस पर अमल किया होता, तो अपने कर्म क्षेत्र में अपना भी कुछ नाम होता ..! पर उस समय हम कुछ नहीं कर पाते ...! समय निकल चुका होता है न ..! अब यदि हम समय रहते अपने कर्म क्षेत्र में कुछ नया करने का जोखिम उठाने की हिम्मत करते तो सब कहते- वाह क्या बात है ! इतनी जल्दी यह शख्स इतना अच्छा काम कर गया ..! यही होता है कि कर्म रह जाता है ...जिससे हमारा नाम रह जाता है ..!
अब आतें है धर्म पर , लगभग हम सभी धर्म का मतलब ईश्वर की आराधना करने को ही मानतें है न ..! वैसे यह भी सही है पर इसमें भी हम कुछ बातों पर अमल करना भूल जातें है ? जैसे - हम पूजा करतें हैं , मंदिर जातें हैं , और तीर्थ -यात्रायें करतें है ! यह सब तो ठीक है पर यदि हम तीर्थ स्थलों पर उन सब की सेवा करें जो किसी न किसी चीज से महरूम हैं , जैसे अपंग, वृद्ध , कमजोर, निसहाय , गरीब , आदि ..इन्हें हम अपनत्व भरे व्यवहार का उपहार दें , और वृद्ध जनों से कुछ समय बैठ कर बातें करें , कमजोर को जिस चीज की जरूरत उस वक्त हो अपनी सामर्थ्य के अनुसार ले कर दे दें ! जो गरीब हों उनसे अपनत्व भरी बातें करके यह जाने कि उनके घर में क्या कमी है , उनके बच्चों की पढाई कैसी चल रही है ...किस स्कूल , कालेज में पढतें हैं ? जानकारी ले और अपनी सामर्थ्य अनुसार उसकी इस तरह मदद करें कि या तो उसे पता न चले और यदि पता भी चल जाये तो उसे वो अहसान न समझे ! दरअसल होता यह है कि हम स्वाभाविक रूप से बातें नहीं कर पाते ? इसलिए जब हम किसी की मदद करतें है तो उसे लगता है हम उन पर अहसान कर रहें हैं या अपने नाम के लिए कर रहें हैं ! और इस तरह हम उसके दिल में अपना स्थान नहीं बना पाते ! संत , या साधू केवल अपने व्यवहार में , बात- चीत में स्वाभाविकता बनाये रखतें है इसलिए वे सबके मन में बस जातें है ! जब कि वे धन दौलत से किसी की मदद नहीं करते , वे जिस भी धार्मिक स्थान पर जातें है स्वाभाविक रूप में रहतें है यह नहीं शो करते कि वे उस स्थान के दर्शन के लिए आयें हैं ! जब कि हम शो करतें है न ..! अब हम उन धार्मिक स्थलों में धन दौलत देने के स्थान पर जो वहां जरूरत है उसे अपनी सेवा से स्वयं पूरा करें तो उस स्थल पर हमे सब याद करेंगे न कि - कितना अच्छा व्यक्ति था खुद आ कर यह काम यहाँ के लिए कर गया ...!
तो हम इन दोनों को अपने जीवन में ठीक उसी तरह शामिल कर ले ! जैसे - धन दौलत कमाने की ललक , लोगों को खुश करने की ललक , तो हमारा जीवन और सुन्दर हो जायेगा न ..! शायद मन ही मन हम भी तो यही चाहते है न ..! "
आज इतना ही ...शेष फिर ..
आपका अपना ही ---
" - ... मनु "

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